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ग़ज़ल
तिरे हाथों की सुर्ख़ी ख़ुद सुबूत इस बात का दे है
कि जो कह दे है दीवाना वो कर के भी दिखा दे है
कलीम आजिज़
ग़ज़ल
और क्या दूँ मैं गुलिस्ताँ से मोहब्बत का सुबूत
मैं ने काँटों को भी पलकों पे सजा रक्खा है
मुज़फ़्फ़र रज़्मी
ग़ज़ल
सिर्फ़ आफ़ात न थीं ज़ात-ए-इलाही का सुबूत
फूल भी दश्त में थे हश्र भी जज़्बात में थे
अहमद नदीम क़ासमी
ग़ज़ल
अम्मार इक़बाल
ग़ज़ल
सुबूत-ए-इश्क़ को ये दो गवाह काफ़ी हैं
जिगर में दाग़ भी है दिल में इज़्तिराब भी है