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ग़ज़ल
इश्क़ की शान मर्हबा इश्क़ है सुन्नत-ए-ख़ुदा
इश्क़ में जो भी मिट गया उस को कभी 'फ़ना' नहीं
फ़ना बुलंदशहरी
ग़ज़ल
कब ज़रूरी है कि हम क़ैस की सुन्नत पे चलें
मज़हब-ए-इश्क़ में बिदअ'त भी तो हो सकती है
यूनुस तहसीन
ग़ज़ल
राह-ए-सुन्नत भी यही जादा-ए-हिजरत भी यही
पाँव रुक जाएँ जहाँ भी उसे घर जानते हैं
इसहाक़ अतहर सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
बर्बादियों से दर्स-ए-बक़ा ले रही हूँ मैं
ये सुन्नत-ए-कुहन शह-ए-करब-ओ-बला की है