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ग़ज़ल
कहाँ नसीब ज़मुर्रद को सुर्ख़-रूई ये
समझ में लाल की अब तक हिना नहीं आई
सययद मोहम्म्द अब्दुल ग़फ़ूर शहबाज़
ग़ज़ल
तुम्हारी ज़ात हवाला है सुर्ख़-रूई का
तुम्हारे ज़िक्र को सब शर्त-ए-फ़न बनाते हैं
अमीर हम्ज़ा साक़िब
ग़ज़ल
सुर्ख़-रूई की तमन्ना में हमेशा क़ातिल
तेग़ मलती है तिरी ख़ून-ए-शहीदाँ मुँह पर
मुंशी खैराती लाल शगुफ़्ता
ग़ज़ल
दयार-ए-'इश्क़ में मिलती है सुर्ख़-रूई उसे
कि जिस की जितनी भी 'इज़्ज़त ख़राब होती है
जमाल एहसानी
ग़ज़ल
ये सुर्ख़-रूई तो इन’आम-ए-‘इश्क़ है 'साक़िब'
ये कोई ज़ख़्म है जिस को रफ़ू किया जाए