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ग़ज़ल
उस चश्म में है सुरमे का दुम्बाला पुर-आशोब
क्यूँ हाथ में बदमस्त के बंदूक़ भरी दी
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
हर एक गाम पे दिल पीस्ता है अबलक़-ए-चश्म
मगर है सुरमे का दुम्बाला ताज़ियाना-ए-इश्क़
ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर
ग़ज़ल
करता है कोई तुर्क-दिला नेज़ा-बाज़ियाँ
दुम्बाला सुरमे का ये नहीं चश्म-ए-यार में
गोया फ़क़ीर मोहम्मद
ग़ज़ल
करेगा क़त्ल वो ऐ 'ज़ौक़' तुझ को सुरमे से
निगह की तेग़ को होने सियाह-ताब तो दे
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
कुलचे जैसे तिरे रुख़्सारों पे जो सुरमे से
मैं बनाता रहा वो तिल मुझे वापस कर दे
सय्यद सलमान गीलानी
ग़ज़ल
सुर्मा जो ज़ेब-ए-चश्म-ए-सियह-फ़ाम हो गया
फ़ित्ना सवार-ए-अबलक़-ए-अय्याम हो गया
शाह अकबर दानापुरी
ग़ज़ल
पाएमाल-ए-ग़म पिसे जाते हैं सुरमे की तरह
ले उड़ी किस के क़दम से गर्दिश-ए-अय्याम रक़्स
बयान मेरठी
ग़ज़ल
कुछ 'अजब ढंग सँवरने का है उन के देखो
नर्गिसी चश्म भी सुर्मे से भरा होता है