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ग़ज़ल
निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
बहुत बे-आबरू हो कर तिरे कूचे से हम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
है काम सुते मतलब बर आवे किसी ढब से
काबा जो हुआ तो क्या बुत-ख़ाना हुआ तो क्या
क़ासिम अली ख़ान अफ़रीदी
ग़ज़ल
ज़माना वारदात-ए-क़ल्ब सुनने को तरसता है
इसी से तो सर आँखों पर मिरा दीवान लेते हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
मैं उस को हर रोज़ बस यही एक झूट सुनने को फ़ोन करता
सुनो यहाँ कोई मसअला है तुम्हारी आवाज़ कट रही है
तहज़ीब हाफ़ी
ग़ज़ल
भरी है दिल में जो हसरत कहूँ तो किस से कहूँ
सुने है कौन मुसीबत कहूँ तो किस से कहूँ