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ग़ज़ल
कहीं सूबा-परस्ती है कहीं फ़िरक़ा-परस्ती है
वही तफ़रीक़-ए-इंसानी जो पहले थी वो अब भी है
रूमाना रूमी
ग़ज़ल
हर-दम तिरे फ़िराक़ में फिरता हूँ सू-ब-सू
लाखों बलाएँ आती हैं 'आजिज़' की जान पर
पीर शेर मोहम्मद आजिज़
ग़ज़ल
इक़्लीम-ए-दिल सीं 'अक़्ल ने ली तब रह-ए-गुरेज़
जब सूबा-दार-ए-इश्क़ ने आ कर ‘अमल किया
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
जुदाई से होवे मफ़रूर जाँ क़ालिब के सूबा सूँ
अपस दीदार सूँ करती हैं फिर उस कूँ बहाल अँखियाँ
उबैदुल्लाह ख़ाँ मुब्तला
ग़ज़ल
फिर निगाहों ने बुने थे चार सू ख़्वाबों के जाल
सू-ब-सू फिर रिश्ता-गर वहम-ओ-गुमाँ के तार थे
रज़ी मुजतबा
ग़ज़ल
उस की याद की बाद-ए-सबा में और तो क्या होता होगा
यूँही मेरे बाल हैं बिखरे और बिखर जाते होंगे
जौन एलिया
ग़ज़ल
मगर लिखवाए कोई उस को ख़त तो हम से लिखवाए
हुई सुब्ह और घर से कान पर रख कर क़लम निकले