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ग़ज़ल
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
दो घड़ी आओ मिल आएँ किसी 'ग़ालिब' से 'क़तील'
हज़रत-ए-'ज़ौक़' तो वाबस्ता हैं दरबार के साथ
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
तमन्ना है कि छेड़ूँ नग़्मा-ए-इंसानियत लेकिन
'क़तील' अब तक मिरे आ'साब से मज़हब नहीं उतरा
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
'क़तील' अब तक नदामत है मुझे तर्क-ए-मोहब्बत पर
ज़रा सा जुर्म कर के आज भी पछता रहा हूँ मैं