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ग़ज़ल
सच कहते हैं शैख़ 'अकबर' है ताअत-ए-हक़ लाज़िम
हाँ तर्क-ए-मय-ओ-शाहिद ये उन की बुज़ुर्गी है
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
गिरने वाली उन तामीरों में भी एक सलीक़ा था
तुम ईंटों की पूछ रहे हो मिट्टी तक हमवार गिरी
जौन एलिया
ग़ज़ल
बुलंदी देर तक किस शख़्स के हिस्से में रहती है
बहुत ऊँची 'इमारत हर घड़ी ख़तरे में रहती है
मुनव्वर राना
ग़ज़ल
ताअत नहीं है वो कि जो हो बे-हुज़ूर-ए-क़ल्ब
ऐ शैख़ क्या धरा है रुकू-ओ-सुजूद में
पंडित जवाहर नाथ साक़ी
ग़ज़ल
प्यासे प्यासे नैनाँ उस के जाने पगली चाहे क्या
तट पर जब भी जावे सोचे नदिया भर लूँ छागल में
जाँ निसार अख़्तर
ग़ज़ल
शिकवा करूँ मैं कब तक उस अपने मेहरबाँ का
अल-क़िस्सा रफ़्ता रफ़्ता दुश्मन हुआ है जाँ का
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
करते हैं ताअ'त तो कुछ ख़्वाहाँ नुमाइश के नहीं
पर गुनह छुप छुप के करने में मज़ा पाते हैं हम