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ग़ज़ल
सोने चाँदी ताँबे पीतल से बनाना फ़न नहीं
अहल-ए-फ़न हैं जो कि मिट्टी से बनाते हैं चराग़
नईम फराज़
ग़ज़ल
रुख़-ए-दौराँ पे है इक नील सा कर्ब-ए-तग़य्युर से
वरक़ ताँबे का खो देता है रंगत आग में गल कर
अज़ीज़ हामिद मदनी
ग़ज़ल
सारे चेहरे ताँबे के हैं लेकिन सब पर क़लई है
मोहमल ताबा-ए-मोहमल क्या है दोनों का इक मा'नी है
हकीम मंज़ूर
ग़ज़ल
पानी अन्क़ा भूमी बंजर तपता ताँबे सा आकाश
हम बेकार ही बीज दिलों में दर्द के बोते रहते हैं
मुज़्तर मजाज़
ग़ज़ल
अमीर ख़ुसरो
ग़ज़ल
न गँवाओ नावक-ए-नीम-कश दिल-ए-रेज़ा-रेज़ा गँवा दिया
जो बचे हैं संग समेट लो तन-ए-दाग़-दाग़ लुटा दिया
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
अब नहीं ताब-ए-सिपास-ए-हुस्न इस दिल को जिसे
बे-क़रार-ए-शिकव-ए-बेजा समझ बैठे थे हम
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
इसी कश्मकश में गुज़रीं मिरी ज़िंदगी की रातें
कभी सोज़-ओ-साज़-ए-'रूमी' कभी पेच-ओ-ताब-ए-'राज़ी'
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
कहीं इस फूटे-मुँह से बेवफ़ा का लफ़्ज़ निकला था
बस अब ता'नों पे ता'ने हैं कि बे-शक बा-वफ़ा तुम हो