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ग़ज़ल
नई ताकीद है ज़ब्त-ए-मोहब्बत की वो कहते हैं
जिगर हो तो फ़ुग़ाँ क्यूँ हो दहन हो तो ज़बाँ क्यूँ हो
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
यही तंबीह मिलने पर उन्हें मजबूर करती है
यही ताकीद गोया ज़िद की बानी होती जाती है
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
बेदाद और उस पे ये ताकीद अल-हज़र
आ जाए दम लबों पे शिकायत न कीजिए
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
ग़ज़ल
जिंदान-ए-हिज्र में हमें सौंपा था 'इश्क़ ने
आए हैं हम नसीबों की ताईद से निकल
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
मैं बूढ़ा हो चला हूँ फिर भी माँ ताकीद करती है
मिरे बेटे न जाना घर से बाहर शाम होते ही
राशिद अनवर राशिद
ग़ज़ल
शिद्दत-ए-ग़म और फिर ताकीद-ए-ज़ब्त-ए-आह भी
लेकिन इक मजबूर-ए-उल्फ़त को गवारा हो गया
नख़्शब जार्चवि
ग़ज़ल
लन-तरानी की जो ताकीद है ऐ दिल ये खुला
बाब-ए-दीदार में मंज़ूर-ए-नज़र कुछ भी नहीं