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ग़ज़ल
मुझे मालूम है कैसे बदल जाती हैं तारीख़ें
इसी ख़ातिर तो मैं बातें पुरानी याद रखता हूँ
फ़ाज़िल जमीली
ग़ज़ल
जुर्म-ए-मोहब्बत की तारीख़ें सब्त हैं जिन के दामन पर
उन लम्हों को दिल में बसाना कितना अच्छा लगता है
ताबिश मेहदी
ग़ज़ल
हक़ीक़त मिट नहीं सकती बदल देने से तारीख़ें
हर इक फ़न में हमारा हुस्न-ए-आलम-गीर बोले है
रहबर जौनपूरी
ग़ज़ल
तक़रीरें देती हैं दिलासे या नफ़रत फैलाती हैं
तू मैं और तारीख़ें लेकिन बनती हैं क़ुर्बानी से
ज़फ़र सहबाई
ग़ज़ल
हमारे बा'द आने वालों को कोई तो समझाए
गए वक़्तों की तारीख़ें हर इक पत्थर में रक्खी हैं