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ग़ज़ल
था बयाबाँ में मुझे क़ैदी-ए-ज़िंदाँ होना
होगा इक वक़्त में ये वाक़िअ-ए-तारीख़ी
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
ग़ज़ल
ज़हे क़िस्मत ऐ हमदम अपने फ़र्त-ए-इश्क़ के सदक़े
जुनूँ की एक तारीख़ी हिकायत हो गए हम तुम
ज़की तारिक़ बाराबंकवी
ग़ज़ल
तिश्ना-ए-ख़ूँ है अपना कितना 'मीर' भी नादाँ तल्ख़ी-कश
दम-दार आब-ए-तेग़ को उस के आब-ए-गवारा जाने है
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
पी जा अय्याम की तल्ख़ी को भी हँस कर 'नासिर'
ग़म को सहने में भी क़ुदरत ने मज़ा रक्खा है