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ग़ज़ल
वो आग बरसी है दोपहर में कि सारे मंज़र झुलस गए हैं
यहाँ सवेरे जो ताज़गी थी वो ताज़गी अब कहीं नहीं है
जावेद अख़्तर
ग़ज़ल
मुझे ये फूल न दे तुझ को दिलबरी की क़सम
ये कुछ नहीं तिरे होंठों की ताज़गी की क़सम
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
ये झोंके जिन से दिल में ताज़गी आँखों में ठंडक है
इन्ही झोंकों से मुरझाया हुआ शब भर रहा हूँ मैं
अहमद मुश्ताक़
ग़ज़ल
थका देती हैं जब कौनैन की पहनाईयाँ मुझ को
तिरे दर पर पहुँच कर ताज़गी महसूस करता हूँ
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
बहुत दिल कर के होंटों की शगुफ़्ता ताज़गी दी है
चमन माँगा था पर उस ने ब-मुश्किल इक कली दी है