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ग़ज़ल
मुझे होटल भी ख़ुश आता है और ठाकुर दुवारा भी
तबर्रुक है मिरे नज़दीक प्रशाद और मटन दोनों
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
सलीब ओ दार की सब रहमतों के पेश-ए-नज़र
वो तबर्रुक करते हुए हिर्स-ए-इज़्ज़-ओ-जाह चले
अर्श मलसियानी
ग़ज़ल
रात मक़्तल में ख़ुदा जाने वो किस का क़त्ल था
जो तबर्रुक बन के सारे क़ातिलों में बट गया
मुश्ताक़ आज़र फ़रीदी
ग़ज़ल
पीता हूँ धो कर 'ज़ैफ़' तो इस में ग़लत क्या है बता
मुझ को तबर्रुक लगता है ये माँ के पैरों का नमक