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ग़ज़ल
वही हुआ कि तकल्लुफ़ का हुस्न बीच में था
बदन थे क़ुर्ब-ए-तही-लम्स से बिखरते हुए
राजेन्द्र मनचंदा बानी
ग़ज़ल
मैं ने कहा कि बज़्म-ए-नाज़ चाहिए ग़ैर से तही
सुन के सितम-ज़रीफ़ ने मुझ को उठा दिया कि यूँ
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
क्या हुआ वाइज़ करे है शोर जूँ तब्ल-ए-तही
वो सर-ए-बे-मग़ज़ गोया कांसा-ए-तम्बूर है