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ग़ज़ल
हश्र में ऐश के सामाँ हुए दुश्मन 'तालिब'
यार-ए-ग़ार अपने जो दुनिया में थे अग़्यार हुए
मुंशी ठाकुर प्रसाद तालिब
ग़ज़ल
नरगिस्ताँ न समझ खोली हुई आँखों को
हैं तिरे तालिब-ए-दीदार तिरे कूचे में
ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़
ग़ज़ल
नर्गिसिस्ताँ न समझ खोली हुई आँखों को
हैं तिरे तालिब-ए-दीदार तिरे कूचे में
ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़
ग़ज़ल
रफ़्ता रफ़्ता वो मिरी हस्ती का सामाँ हो गए
पहले जाँ फिर जान-ए-जाँ फिर जान-ए-जानाँ हो गए
तस्लीम फ़ाज़ली
ग़ज़ल
तग़ाफ़ुल तर्क कर डालो तकल्लुफ़ अब न फ़रमाओ
लब-ए-जाँ है मरीज़-ए-तालिब-ए-जल्वा चले आओ
मिर्ज़ा ग़ुलाम अब्बास ज़ाहिर हैदरी
ग़ज़ल
उस में रह कर उस के बाहर झाँकना अच्छा नहीं
दिल-नशीं के दिल को कमतर आँकना अच्छा नहीं