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ग़ज़ल
जिंस-ए-वफ़ा को करते हैं अहल-ए-वफ़ा पसंद
दुश्मन को क्या तमीज़ है दुश्मन की क्या पसंद
बेख़ुद देहलवी
ग़ज़ल
हम को भी तो वा'इज़ है बद ओ नेक में तमीज़
हम भी तो कभी साहिब-ए-ईमान रहे हैं