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ग़ज़ल
जो भी तुम ने शोहरत पाई जो भी तुम बदनाम हुए
क्या यही तरका अपने प्यारे बच्चों को दे जाओगे
जमीलुद्दीन आली
ग़ज़ल
मिरा बिस्तर किसी फ़ुट-पाथ पर जा कर लगा दो
मिरे बच्चे अभी से मुझ से तरका माँगते हैं
अख़्तर होशियारपुरी
ग़ज़ल
नहीं बे-हिजाब वो चाँद सा कि नज़र का कोई असर न हो
उसे इतनी गर्मी-ए-शौक़ से बड़ी देर तक न तका करो
बशीर बद्र
ग़ज़ल
लगने न दे बस हो तो उस के गौहर-ए-गोश को बाले तक
उस को फ़लक चश्म-ए-मह-ओ-ख़ुर की पुतली का तारा जाने है
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
'मीर' के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो उन ने तो
क़श्क़ा खींचा दैर में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
सच कहते हैं शैख़ 'अकबर' है ताअत-ए-हक़ लाज़िम
हाँ तर्क-ए-मय-ओ-शाहिद ये उन की बुज़ुर्गी है
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं
लेकिन इस तर्क-ए-मोहब्बत का भरोसा भी नहीं