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ग़ज़ल
सच कहते हैं शैख़ 'अकबर' है ताअत-ए-हक़ लाज़िम
हाँ तर्क-ए-मय-ओ-शाहिद ये उन की बुज़ुर्गी है
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं
लेकिन इस तर्क-ए-मोहब्बत का भरोसा भी नहीं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
भुलाता लाख हूँ लेकिन बराबर याद आते हैं
इलाही तर्क-ए-उल्फ़त पर वो क्यूँकर याद आते हैं
हसरत मोहानी
ग़ज़ल
याद थीं हम को भी रंगा-रंग बज़्म-आराईयाँ
लेकिन अब नक़्श-ओ-निगार-ए-ताक़-ए-निस्याँ हो गईं
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
अहद-ए-वफ़ा या तर्क-ए-मोहब्बत जो चाहो सो आप करो
अपने बस की बात ही क्या है हम से क्या मनवाओगे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
मैं तर्क-ए-रह-ओ-रस्म-ए-जुनूँ कर ही चुका था
क्यूँ आ गई ऐसे में तिरी लग़्ज़िश-ए-पा याद