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ग़ज़ल
हम ने तज़ाद-ए-दहर को समझा दो-राहे तरतीब दिए
और बरतने निकले तो देखा सह-राहे रक्खे थे
अब्दुल अहद साज़
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
देखने वाले ये कहते हैं किताब-ए-दहर में
तू सरापा हुस्न का नक़्शा है मैं तस्वीर-ए-इश्क़
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
इक तज़ाद-ए-हुस्न-ए-मा'नी है तिरी ता'मीर में
दस्तरस में भी गिरफ़्त-ए-वक़्त से बाहर भी तू
सुलतान रशक
ग़ज़ल
इस तज़ाद-ए-दिल-नशीं को कुछ समझते हैं हमीं
दिल मिलाता और है आँखें दिखाता और है
मोहम्मद हबीब हबीब
ग़ज़ल
न पूछ राज़-ए-दरून-ए-निगार-ख़ाना-ए-दहर
किसे ख़बर है कि मैं क्या हूँ और तू क्या है