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ग़ज़ल
जिसे देखो ब-ज़ोअम-ए-ख़ुद है ठेके-दार जन्नत का
कहीं इक-आध ही मुझ सा कोई मरदूद होता है
शमीम अब्बास
ग़ज़ल
दीन धरम के पंडित मुल्ला अच्छे ठेकेदार बने हैं
चल कर दूर कहीं बस्ती से डालें अपना डेरा बाबा
शम्स रम्ज़ी
ग़ज़ल
'मोमिन' वो ग़ज़ल कहते हैं अब जिस से ये मज़मून
खुल जाए कि तर्क-ए-दर-ए-बुत-ख़ाना करेंगे
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
मिला तू हम से महफ़िल में जो शब को ग़ैर क्यूँ बिगड़ा
तिरा हाकिम था ठेका-दार था मुख़्तार था क्या था