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ग़ज़ल
ज़हीर देहलवी
ग़ज़ल
दुनिया के सब कारज छोड़े नाम पे तेरे 'इंशा' ने
और उसे क्या थोड़े ग़म थे तेरा इश्क़ मज़ीद हुआ
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
ग़म-ए-जानाँ के भी कुछ देर तो हम नाज़ उठा लें
ग़म-ए-दौराँ से थोड़े दिन की रुख़्सत चाहिए है
फ़रहत नदीम हुमायूँ
ग़ज़ल
किसी का आबला-पा क़ब्र से ये पूछता उट्ठा
कहीं थोड़े बहुत काँटे भी हैं मैदान-ए-महशर में
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
हक़ के लश्कर में सिपाही हैं बहुत थोड़े से
हम ने ही हौसला बातिल का बढ़ा रक्खा है
अज़ीज़ुर्रहमान शहीद फ़तेहपुरी
ग़ज़ल
लाख रहे शहरों में फिर भी अंदर से देहाती थे
दिल के अच्छे लोग थे लेकिन थोड़े से जज़्बाती थे
फ़रहत ज़ाहिद
ग़ज़ल
जहाँ में वाक़ई 'मुज़्तर' का भी इक दम ग़नीमत था
मगर अफ़्सोस थोड़े दिन जिया कम ज़िंदगी पाई