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ग़ज़ल
मुन्नी की भोली बातों सी चटकीं तारों की कलियाँ
पप्पू की ख़ामोशी शरारत सा छुप छुप कर उभरा चाँद
निदा फ़ाज़ली
ग़ज़ल
तिरा उभरा हुआ सीना जो हम को याद आता है
तो ऐ रश्क-ए-परी पहरों कफ़-ए-अफ़्सोस मिलते हैं
भारतेंदु हरिश्चंद्र
ग़ज़ल
कटे यूँ तो हज़ारों सर वफ़ा की कर्बलाओं में
तिरे नेज़े पे जो उभरा सर-ए-शाहाना मेरा था
अर्श सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
उभरा हूँ जिन से बार-हा मुझ में थे सब भँवर
डूबा जहाँ पहुँच के वो साहिल भी मैं ही था