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ग़ज़ल
अदू-ए-दीन-ओ-ईमाँ दुश्मन-ए-अम्न-ओ-अमाँ निकले
तिरे पैकाँ बड़े जाबिर बड़े ना-मेहरबाँ निकले
जितेन्द्र मोहन सिन्हा रहबर
ग़ज़ल
कोई समझा दे इतना इस अदू-ए-दीन-ओ-ईमाँ को
तिरी काफ़िर-अदा क्यों छेड़ती है हर मुसलमाँ को
सफ़दर मिर्ज़ापुरी
ग़ज़ल
वो फ़क़ीह-ए-कू-ए-बातिन है अदू-ए-दीन-ओ-मिल्लत
किसी ख़ौफ़-ए-दुनियवी से जो तराश दे फ़साना
माहिर-उल क़ादरी
ग़ज़ल
ऐ दिल वालो घर से निकलो देता दावत-ए-आम है चाँद
शहरों शहरों क़रियों क़रियों वहशत का पैग़ाम है चाँद
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
हाँ यही शख़्स गुदाज़ और नाज़ुक होंटों पर मुस्कान लिए
ऐ दिल अपने हाथ लगाते पत्थर का बन जाएगा
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
बद्र-ए-आलम ख़लिश
ग़ज़ल
गुम हुए जाते हैं धड़कन के निशाँ हम-नफ़सो
है दर-ए-दिल पे कोई संग-ए-गिराँ हम-नफ़सो
बद्र-ए-आलम ख़लिश
ग़ज़ल
छुपा के सो गई मुँह दिन में रहगुज़ार-ए-फ़िराक़
जो शब हुई तो ख़यालों का कारवाँ गुज़रा
सय्यदा शान-ए-मेराज
ग़ज़ल
दिल से मजबूर भी हम साहिब-ए-पिंदार भी हम
आस्ताँ से तिरे कतरा के गुज़र आते हैं