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ग़ज़ल
हँसते हँसते रूठ भी जाएँ उफ़ री जवानी हाए ज़माने
सोना चाँदी दोनों कटाएँ उफ़ री जवानी हाए ज़माने
हबीब आरवी
ग़ज़ल
एक सितम और लाख अदाएँ उफ़ री जवानी हाए ज़माने
तिरछी निगाहें तंग क़बाएँ उफ़ री जवानी हाए ज़माने
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
उफ़ री मजबूरी मिज़ाज-ए-यार में हो कर दख़ील
राज़दाँ ख़ुद अपने दुश्मन को बनाना ही पड़ा
अंजुम मानपुरी
ग़ज़ल
अल्लह रे ज़ोफ़ उफ़ री ग़शी हिज्र-ए-यार में
मुर्दा सा था पड़ा सर-ए-बिस्तर तमाम रात
सय्यद अमीर हसन बद्र
ग़ज़ल
उफ़-री मनाज़िल-ए-बुलंद तेरे हरीम-ए-नाज़ की
पा-ए-तलब को कितने तय करने पड़े हैं आसमाँ
निहाल सेवहारवी
ग़ज़ल
हिज्र की रातों के सन्नाटे में उफ़ री बे-ख़ुदी
हम दिल-ए-गुम-गश्ता को अपनी सदा देने लगे