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ग़ज़ल
उल्टी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया
देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
ख़ुदाया जज़्बा-ए-दिल की मगर तासीर उल्टी है
कि जितना खींचता हूँ और खिंचता जाए है मुझ से
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
बात उल्टी वो समझते हैं जो कुछ कहता हूँ
अब के पूछा तो ये कह दूँगा कि हाल अच्छा है
जलील मानिकपूरी
ग़ज़ल
वो सीधी उल्टी इक इक मुँह में सौ सौ मुझ को कह जाना
दम-ए-बोसा वो तेरा रूठ जाना याद आता है
निज़ाम रामपुरी
ग़ज़ल
कैसा ज़माना आया है ये उल्टी रीत है उल्टी बात
फूलों को काँटे डसते हैं जो इन के रखवाले हैं
अमीक़ हनफ़ी
ग़ज़ल
किश्वर-ए-इश्क़ की रस्में अजब उल्टी देखीं
सल्तनत करते हैं सब दिल के चुराने वाले
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
ग़ज़ल
लेती हैं उल्टी साँसें जब शाम-ए-ग़म फ़ज़ाएँ
उस दम फ़ना-बक़ा की मैं नब्ज़ देखता हूँ
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
वक़्त के बे-ढब रस्तों पर और उल्टी सीधी चाल में ख़ुश
देखो कैसे रहते हैं हम दुनिया के जंजाल में ख़ुश
अज़ीज़ नबील
ग़ज़ल
होश-ओ-ख़िरद क्या जोश-ए-जुनूँ क्या उल्टी गंगा बहती है
क्या फ़रज़ाने कैसे सियाने यारो सब दीवाने हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
उल्टी-सीधी सुनता रह अपनी कह तो उल्टी कह
सादा है तू क्या जाने भाँपने का है ढब क्या