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ग़ज़ल
पुरनम इलाहाबादी
ग़ज़ल
हफ़ीज़ ताईब
ग़ज़ल
क्या ये कम है उम्मती हूँ मैं तिरे महबूब का
कैसे कह दूँ ऐ ख़ुदा मुझ को मिला कुछ भी नहीं
मक़सूद अनवर मक़सूद
ग़ज़ल
उन को महबूब-ए-ख़ुदा होने का हासिल है शरफ़
शुक्र है मुझ को उन्ही का उम्मती रक्खा गया
एख़लाक़ अहमद एख़लाक़
ग़ज़ल
मयस्सर आ चुकी है सर-बुलंदी मुड़ के क्यूँ देखें
इमामत मिल गई हम को तो उम्मत छोड़ दी हम ने
शहज़ाद अहमद
ग़ज़ल
उस की उम्मत में हूँ मैं मेरे रहें क्यूँ काम बंद
वास्ते जिस शह के 'ग़ालिब' गुम्बद-ए-बे-दर खुला
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
उसे यक़ीं है बे-ईमानी बिन वो बाज़ी जीतेगा
अच्छा इंसाँ है पर अभी खिलाड़ी कच्चा लगता है
दीप्ति मिश्रा
ग़ज़ल
पहरों चुप रहते हैं हम और अगर बोलते हैं
वही फिर फिर के उलटती हैं तुम्हारी बातें