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ग़ज़ल
ये माना हम ने सब्र-ओ-ज़ब्त के आदी हैं हम लेकिन
सितम हद से गुज़र जाए तो फिर ख़ंजर उठाते हैं
नईम वाक़िफ़
ग़ज़ल
बे-ख़ुदी अच्छी थी अब तो आगही की शक्ल में
ग़म ही ग़म ना-वाक़िफ़-ए-अंजाम ले कर आए हैं
सय्यदा शान-ए-मेराज
ग़ज़ल
कोई मिलता ही नहीं वाक़िफ़-ए-आदाब-ए-जुनूँ
अब तो बस्ती ही अलग अपनी बसा ली जाए
शान-ए-हैदर बेबाक अमरोहवी
ग़ज़ल
सुलूक-ए-इश्क़ में बे-फ़ैज़ हैं वो लब जिन से
हुसूल-ए-लज़्ज़त-ए-शीरीनी-ए-लुआब न हो
मुहिउद्दीन गुल्फ़ाम
ग़ज़ल
देख कर शौक़-ए-शहादत बर-सर-ए-मक़्तल मिरा
क़ातिलों ने हाथ से घबरा के ख़ंजर रख दिए
शान-ए-हैदर बेबाक अमरोहवी
ग़ज़ल
देख लेना पस-ए-क़ातिल भी कोई होगा ज़रूर
सिर्फ़ क़ातिल ही चलाता नहीं ख़ंजर देखो
बद्र-ए-आलम ख़ाँ आज़मी
ग़ज़ल
दस्त-ए-क़ातिल में कोई तेग़ न ख़ंजर होता
मिरा साया जो मिरे क़द के बराबर होता