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ग़ज़ल
हाँ यही शख़्स गुदाज़ और नाज़ुक होंटों पर मुस्कान लिए
ऐ दिल अपने हाथ लगाते पत्थर का बन जाएगा
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
कहीं सुब्ह-ओ-शाम के दरमियाँ कहीं माह-ओ-साल के दरमियाँ
ये मिरे वजूद की सल्तनत है अजब ज़वाल के दरमियाँ
बद्र-ए-आलम ख़लिश
ग़ज़ल
वो कौन शख़्स था कल रात बज़्म-ए-याराँ में
जो क़हक़हों में भी शामिल था सोगवार भी था
सय्यदा शान-ए-मेराज
ग़ज़ल
बस इसी बात पे वो शख़्स ख़फ़ा है मुझ से
शहर में तज़्किरा-ए-रस्म-ए-वफ़ा है मुझ से
सय्यदा शान-ए-मेराज
ग़ज़ल
दौलत-ए-दीदार हस्ब-ए-मुद्दआ हासिल हुई
मिल गई जिस शख़्स को तक़दीर से इक्सीर-ए-इश्क़
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
ख़ुदा का दोस्त है तामीर-ए-दिल जो शख़्स करता हो
ख़लीलुल्लाह भी काबा का इक मेमार था क्या था
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
हर शख़्स मो'तरिफ़ कि मुहिब्ब-ए-वतन हूँ मैं
फिर 'अदलिया ने क्यूँ सर-ए-मक़्तल क्या मुझे