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ग़ज़ल
जिस के कारन त्याग तपस्या और तप को वन-वास मिला
सोच रहा हूँ इक रानी को क्यूँ ऐसा वर याद रहा
कुंवर बेचैन
ग़ज़ल
अब नज़्अ' का आलम है मुझ पर तुम अपनी मोहब्बत वापस लो
जब कश्ती डूबने लगती है तो बोझ उतारा करते हैं
क़मर जलालवी
ग़ज़ल
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
अगर तुम दिल हमारा ले के पछताए तो रहने दो
न काम आए तो वापस दो जो काम आए तो रहने दो