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ग़ज़ल
किताब-ए-ज़िंदगी का हर वर्क़ कहने को सादा है
मगर जो कुछ भी लिक्खा है हुरूफ़-ए-ख़ूँ में लिक्खा है
हैरत इलाहाबादी
ग़ज़ल
अधूरी ज़िंदगी को अब लिए फिरें कहाँ कहाँ
किताब-ए-दिल से उस के नाम के वर्क़ तो फट गए
क़ैसर-उल जाफ़री
ग़ज़ल
बदीउज़्ज़माँ सहर
ग़ज़ल
तिरे नुत्क़ ने जो रक़म किए थे वर्क़ वर्क़
ये वही हुरूफ़-ए-किताब हैं ये जो ख़्वाब हैं
मोहम्मद फ़ीरोज़ शाह
ग़ज़ल
ज़माना-साज़ निकले फ़ख़्र-ए-रूदाद-ए-जहाँ निकले
नज़र जिस वर्क़ पर डालो हमारी दास्ताँ निकले