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ग़ज़ल
उमैर नजमी
ग़ज़ल
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
काफ़ी न मोहर-ए-ख़ुम को हुए लुक्का-हा-ए-अब्र
अब इस क़दर वसीअ' ये ख़ुम-ख़ाना हो गया
रियाज़ ख़ैराबादी
ग़ज़ल
वसीअ' कितना है 'रिज़वान' दिल का आलम भी
तमाम अहल-ए-जहाँ हैं इसी जहान में गुम
रिज़वानुर्रज़ा रिज़वान
ग़ज़ल
ज़ूद-रंजी भी 'वासिय्या' एक आदत ही सही
ये तो बतला दें कि इस में क्या मिरी तक़्सीर है
फ़ातिमा वसीया जायसी
ग़ज़ल
फ़रिश्ते आ के 'वासिय्या' से बोले मरक़द में
लहद में आप को अब इंतिज़ार किस का है