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ग़ज़ल
वाँ वो ग़ुरूर-ए-इज्ज़-ओ-नाज़ याँ ये हिजाब-ए-पास-ए-वज़अ
राह में हम मिलें कहाँ बज़्म में वो बुलाए क्यूँ
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
वो अपनी ख़ू न छोड़ेंगे हम अपनी वज़्अ क्यूँ छोड़ें
सुबुक-सर बन के क्या पूछें कि हम से सरगिराँ क्यूँ हो
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
अनोखी वज़्अ है सारे ज़माने से निराले हैं
ये आशिक़ कौन सी बस्ती के या-रब रहने वाले हैं
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
क्यूँ न तश्बीह उसे ज़ुल्फ़ से दें आशिक़-ए-ज़ार
वाक़ई तूल-ए-शब-ए-हिज्र बला होता है
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
ग़ज़ल
नई ये वज़्अ शरमाने की सीखी आज है तुम ने
हमारे पास साहब वर्ना यूँ सौ बार बैठे हैं
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
दर्द का कहना चीख़ ही उट्ठो दिल का कहना वज़्अ निभाओ
सब कुछ सहना चुप चुप रहना काम है इज़्ज़त-दारों का
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
कभी मिलते थे वो हम से ज़माना याद आता है
बदल कर वज़्अ छुप कर शब को आना याद आता है
निज़ाम रामपुरी
ग़ज़ल
कोई पूछेगा जिस दिन वाक़ई ये ज़िंदगी क्या है
ज़मीं से एक मुट्ठी ख़ाक ले कर हम उड़ा देंगे
अनवर जलालपुरी
ग़ज़ल
जाने क्या वज़्अ है अब रस्म-ए-वफ़ा की ऐ दिल
वज़-ए-देरीना पे इसरार करूँ या न करूँ