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ग़ज़ल
उसी पर नाज़ करती है हमेशा हाथ की रेखा
कि जिस की मुट्ठी में भी विर्सा-ए-अज्दाद होता है
सरदार पंछी
ग़ज़ल
ता-ब-कय शौकत-ए-अज्दाद पे ये नाज़-ओ-ग़ुरूर
ख़्वाब-ए-ग़फ़लत से उठो वक़्त के तेवर देखो
बद्र-ए-आलम ख़ाँ आज़मी
ग़ज़ल
चाहूँ तो मस्लहत को फ़रीज़ा क़रार दूँ
पर क्या करूँ कि सुन्नत-ए-अज्दाद और है