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ग़ज़ल
मिरा ख़्वाब-उल-अज़ीज़ ओ ग़ैरत-ए-ख़्वाब-ए-ज़ुलेख़ा है
तसव्वुर रात भर था मुझ को इक यूसुफ़-शमाइल का
मीर कल्लू अर्श
ग़ज़ल
हाथ फैलाए थे तुम ने मुझ को तन्हा देख कर
अब ख़फ़ा होते हो क्यूँ ज़ख़्म-ए-तमन्ना देख कर
नसीम शामाइल पूरी
ग़ज़ल
हुस्न-ए-यूसुफ़ किसे कहते हैं ज़ुलेख़ा क्या है
इश्क़ इक रम्ज़ है नादाँ अभी समझा क्या है
सय्यदा नफ़ीस बानो शम्अ
ग़ज़ल
यूसुफ़ ही ज़र-ख़रीदों में फ़ीरोज़-बख़्त था
क़ीमत में जिस की फिर वही शाही का तख़्त था
शेर मोहम्मद ख़ाँ ईमान
ग़ज़ल
पहले तो फ़क़त उस का तलबगार हुआ मैं
फिर इश्क़ में ख़ुद अपने गिरफ़्तार हुआ मैं
फ़िरोज़ नातिक़ ख़ुसरो
ग़ज़ल
मौसमों की सुर्ख़ गीली धूप मेरे घर में थी
शो'लगी के रक़्स में डूबी फ़ज़ा बाहर में थी
शमीम यूसुफ़ी
ग़ज़ल
वज्ह-ए-रुस्वाई है अब लाएक़-ए-महफ़िल होना
उन की फ़हरिस्त-ए-तबर्रा में न शामिल होना