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ग़ज़ल
वाइ'ज़ है न ज़ाहिद है नासेह है न क़ातिल है
अब शहर में यारों की किस तरह बसर होगी
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
गए होश तेरे ज़ाहिद जो वो चश्म-ए-मस्त देखी
मुझे क्या उलट न देते जो न बादा-ख़्वार होता
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
तर्क-ए-दुनिया का ये दावा है फ़ुज़ूल ऐ ज़ाहिद
बार-ए-हस्ती तो ज़रा सर से उतारा होता
अख़्तर शीरानी
ग़ज़ल
ब-ज़ाहिर रहनुमा हैं और दिल में बद-गुमानी है
तिरे कूचे में जो जाता है आगे हम भी होते हैं
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
समझता क्या है तू दीवानगान-ए-इश्क़ को ज़ाहिद
ये हो जाएँगे जिस जानिब उसी जानिब ख़ुदा होगा