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ग़ज़ल
बराबर आज-कल रंगीं है हुस्न-ओ-इश्क़ का दामन
सरिश्क-ए-ख़ूँ से गुल-कारी इधर भी है उधर भी है
ज़ब्त अंसारी
ग़ज़ल
शम्अ'-रूयों से नहीं उमीद-ए-दाद-ए-सोज़-ए-इश्क़
ये ग़नीमत है समझ लें अपना परवाना मुझे
ज़ब्त सीतापुरी
ग़ज़ल
हटा ले दिल को अगर 'ज़ब्त' अह्ल-ए-दुनिया से
बराबर उस की निगाहों में ख़ैर-ओ-शर हो जाए
ज़ब्त सीतापुरी
ग़ज़ल
नहीं जो ज़ब्त की तौफ़ीक़ दे ख़ुदा के सिवा
कि लाख ग़म भी हैं उम्र-ए-गुरेज़-पा के सिवा