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ग़ज़ल
ज़र्रा-ए-वादी-ए-उल्फ़त पे मुनासिब है निगाह
फ़लक-ए-हुस्न पे ख़ुर्शीद-ए-दरख़्शाँ हो कर
ग़ुलाम भीक नैरंग
ग़ज़ल
किस के जल्वों ने दिखाई वादी-ए-उल्फ़त मुझे
खींचे है इक भोली-भाली साँवली सूरत मुझे
रऊफ़ यासीन जलाली
ग़ज़ल
घर अपना वादी-ए-बर्क़-ओ-शरर में रक्खा जाए
तअ'ल्लुक़ात का सौदा न सर में रक्खा जाए
अमानुल्लाह ख़ालिद
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
वही रिवायत गज़ीदा-दानिश वही हिकायत किताब वाली
रही हैं बस ज़ेर-ए-दर्स तेरे किताबें पिछले निसाब वाली