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ग़ज़ल
हैं कितने मिसरे अभी ज़ेर-ए-तर्बियत मुझ में
मैं लफ़्ज़ लफ़्ज़ तराशूँ तो शा'इरी से मिलूँ
सपना अहसास
ग़ज़ल
मिरे हल्क़ा-ए-सुख़न में अभी ज़ेर-ए-तर्बियत हैं
वो गदा कि जानते हैं रह-ओ-रस्म-ए-कज-कुलाही
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
वही रिवायत गज़ीदा-दानिश वही हिकायत किताब वाली
रही हैं बस ज़ेर-ए-दर्स तेरे किताबें पिछले निसाब वाली
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
पेश करता है छुपा कर ग़म-ए-पिन्हाँ लेकिन
उस की तहरीर का हर ज़ेर-ओ-ज़बर चीख़ता है
बद्र-ए-आलम ख़ाँ आज़मी
ग़ज़ल
है मिरा सर ज़ेर-ए-बार-ए-मिन्नत-ए-बेदाद-ए-यार
उस के अल्ताफ़-ओ-इनायत का मैं क़ाएल हो गया