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ग़ज़ल
तक़दीर ने क्या क़ुतुब-ए-फ़लक मुझ को बनाया
मोहताज मिरा पाँव रहा ख़ाना-ए-ज़ीं का
वाजिद अली शाह अख़्तर
ग़ज़ल
बयाबान-ए-फ़ना है बाद-ए-सहरा-ए-तलब 'ग़ालिब'
पसीना तौसन-ए-हिम्मत तो सैल-ए-ख़ाना-ए-जीं है
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
वो जो कहलाते थे ज़ीं-पेश तिरे यारों में
जान-ए-मन अब तो हमें भूल गया हम ही हैं
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
हरगिज़ हुआ न यारो वो शोख़ यार अपना
ज़ीं पेश वर्ना हम ने क्या क्या कि कर न देखा