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ग़ज़ल
पेड़ों की घनी छाँव और चैत की हिद्दत थी
और ऐसे भटकने में अंजान सी लज़्ज़त थी
ज़ुल्फ़ेक़ार अहमद ताबिश
ग़ज़ल
इन लबों से अब हमारे लफ़्ज़ रुख़्सत चाहते हैं
जागती आँखों में ख़्वाबों की सलामत चाहते हैं
ज़ुल्फ़ेक़ार अहमद ताबिश
ग़ज़ल
कुछ गुनह नहीं इस में ए'तिराफ़ ही कर लो
जो छुपाए फिरते हो सब के रू-ब-रू कह दो
ज़ुल्फ़ेक़ार अहमद ताबिश
ग़ज़ल
कातता हूँ रात-भर अपने लहू की धार को
खींचता हूँ इस तरह इंकार से इक़रार को
ज़ुल्फ़ेक़ार अहमद ताबिश
ग़ज़ल
ये शोर-ओ-शर तो पहले दिन से आदम-ज़ाद में है
ख़राबी कुछ न कुछ तो इस की ख़ाक ओ बाद में है
ज़ुल्फ़ेक़ार अहमद ताबिश
ग़ज़ल
तलाश करती हैं ख़ुद मंज़िलें जिसे 'अहमद'
मैं दश्त-ए-शौक़ में वो रास्ता बनाता हूँ
मोहम्मद अतीक़ अहमद
ग़ज़ल
मसर्रत है दिल-ए-मुज़्तर को फ़स्ल-ए-गुल की आमद पर
तबीअत फ़स्ल-ए-गुल में और घबराई तो क्या होगा