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नज़्म
'ग़ालिब' ओ 'शेफ़्ता' ओ 'नय्यर' ओ 'आज़ुर्दा' ओ 'ज़ौक़'
अब दिखाएगा न शक्लों को ज़माना हरगिज़
अल्ताफ़ हुसैन हाली
नज़्म
'ग़ालिब'-ओ-'शेफ़्ता'-ओ-'नय्यर'-ओ-'आज़ुर्दा'-ओ-'ज़ौक़'
अब दिखाएगा ये शक्लें न ज़माना हरगिज़
अल्ताफ़ हुसैन हाली
नज़्म
'शेफ़्ता' ने मिरी कश्ती को उभारा था कभी
'मुसहफ़ी' ने मिरे चेहरे को निखारा था कभी