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नज़्म
कभी के तेरी महफ़िल से मोहब्बत के रतन निकले
सितम है इस गुलिस्ताँ से तिरे सब हम-वतन निकले
नारायण दास पूरी
नज़्म
तुम्हारे साथ भी गुज़री हुई रातों के साए हैं
तआ'रुफ़ रोग हो जाए तो उस का भूलना बेहतर