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नज़्म
ज़फ़र-मंदों के आगे रिज़्क़ की तहसील की ख़ातिर
कभी अपना ही नग़्मा उन का कह कर मुस्कुराना है
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
साहिर लुधियानवी
नज़्म
सुरूर बाराबंकवी
नज़्म
मग़रिब ओ मशरिक़ नज़र आने लगे ज़ेर-ओ-ज़बर
इंक़लाब-ए-हिन्द है सारे जहाँ का इंक़लाब
ज़फ़र अली ख़ाँ
नज़्म
ज़माने में जिसे हो साहिब-ए-फ़तह-ओ-ज़फ़र होना
ज़रूरी है उसे इल्म-ओ-हुनर से बहरा-वर होना
अहमक़ फफूँदवी
नज़्म
पहुँचता है हर इक मय-कश के आगे दौर-ए-जाम उस का
किसी को तिश्ना-लब रखता नहीं है लुत्फ़-ए-आम उस का