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नज़्म
नादान हैं वो जो छेड़ते हैं इस आलम में नादानों को
उस शख़्स से एक जवाब मिला सब अपनों को बेगानों को
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
मगर एहसास अपनों सा वो अनजाने दिलाते हैं
वो कैसे लोग होते हैं जिन्हें हम दोस्त कहते हैं
इरफ़ान अहमद मीर
नज़्म
न रह अपनों से बे-परवा इसी में ख़ैर है तेरी
अगर मंज़ूर है दुनिया में ओ बेगाना-ख़ू रहना