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नज़्म
ग़रज़ वो हुस्न अब इस रह का जुज़्व-ए-मंज़र है
नियाज़-ए-इश्क़ को इक सज्दा-गह मयस्सर है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
धूप में लहरा रही है काकुल-ए-अम्बर-सरिश्त
हो रहा है कम-सिनी का लोच जुज़्व-ए-संग-ओ-ख़िश्त
जोश मलीहाबादी
नज़्म
फ़लक ने ज़ीनत-ए-निस्याँ बना के छोड़ दिया
रुसूम-ए-लुत्फ़ को दिल-जूई के क़रीनों को
अब्दुल अहद साज़
नज़्म
छोड़ा है जब से इस को तलफ़्फ़ुज़ बिगड़ गया
ये हर ज़बाँ का जुज़्व-ए-बयाँ और शान है
हबीब अहमद अंजुम दतियावी
नज़्म
यूँ तो हर शाइ'र की फ़ितरत में है कुछ दीवानगी
ग़ैर ज़िम्मेदारियाँ हैं उस की जुज़्व-ए-ज़िंदगी
रज़ा नक़वी वाही
नज़्म
और इस ज़र्रे का मैं जुज़्व-ए-हक़ीर
मेरा हिस्सा नब्ज़-ए-मआनी की ख़ुश-आहंगी में लफ़्ज़ों को नचाना
अमीक़ हनफ़ी
नज़्म
अगर तक़दीम-ए-इंसाँ की हक़ीक़त एक लम्हा है
वो इक लम्हा कभी जुज़्व-ए-हयात-ए-जावेदाँ क्यों हो
नईम सिद्दीक़ी
नज़्म
मेरे अफ़्कार तो हैं जुज़्व मिरी हस्ती के
ख़ुद भी मैं खो सा गया 'अम्न' उन्हें खोने में