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नज़्म
क़ल्ब-ए-इंसानी में रक़्स-ए-ऐश-ओ-ग़म रहता नहीं
नग़्मा रह जाता है लुत्फ़-ए-ज़ेर-ओ-बम रहता नहीं
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
लिखा गया है बहुत लुतफ़-ए-वस्ल ओ दर्द-ए-फ़िराक़
मगर ये कैफ़ियत अपनी रक़म नहीं है कहीं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
लुत्फ़-ए-गोयाई में तेरी हम-सरी मुमकिन नहीं
हो तख़य्युल का न जब तक फ़िक्र-ए-कामिल हम-नशीं
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
हुई जुम्बिश अयाँ ज़र्रों ने लुत्फ़-ए-ख़्वाब को छोड़ा
गले मिलने लगे उठ उठ के अपने अपने हमदम से
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
मैं हूँ तिरे क़दमों में मुझे कुछ नहीं कहना
अब जो भी तिरा लुत्फ़-ए-करीमाना बना दे
जिगर मुरादाबादी
नज़्म
कुछ और भी रौनक़ में बढ़े शोल-ए-तक़रीर
हर दिन हो तिरा लुत्फ़-ए-ज़बाँ और ज़ियादा
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
रात आख़िर हुई और बज़्म हुई ज़ेर-ओ-ज़बर
अब न देखोगे कभी लुत्फ़-ए-शबाना हरगिज़
अल्ताफ़ हुसैन हाली
नज़्म
थी हर इक जुम्बिश निशान-ए-लुत्फ़-ए-जाँ मेरे लिए
हर्फ़-ए-बे-मतलब थी ख़ुद मेरी ज़बाँ मेरे लिए
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
पहुँचता है हर इक मय-कश के आगे दौर-ए-जाम उस का
किसी को तिश्ना-लब रखता नहीं है लुत्फ़-ए-आम उस का
ज़फ़र अली ख़ाँ
नज़्म
रात आख़िर हुई और बज़्म हुई ज़ेर-ओ-ज़बर
अब न देखोगे कभी लुत्फ़-ए-शबाना हरगिज़