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नज़्म
कभी जब सोचता हूँ अपने बारे में तो कहता हूँ
कि तू इक आबला है जिस को आख़िर फूट जाना है
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
न बात अब तक सुनी गई है
शराब-ओ-शेर-ओ-शुऊ'र का जो इक तअ'ल्लुक़ है उस के बारे में राय क्या है
तारिक़ क़मर
नज़्म
बार-ए-मशक़्क़त कम करने को खलियानों में काम से चूर
कम-सिन लड़के गाते होंगे लो देखो वो सुब्ह का नूर
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
तिरे होंटों से निकले साँस की ख़ुश्बू
दर-ओ-दीवार से रस्ता बना कर सारे बर्र-ए-'आज़मों में फैल सकती है
तहज़ीब हाफ़ी
नज़्म
न देखे हैं बुरे इस ने न परखे हैं भले इस ने
शिकंजों में जकड़ कर घूँट डाले हैं गले इस ने