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नज़्म
ज़िंदगी की क़ूव्वत-ए-पिन्हाँ को कर दे आश्कार
ता ये चिंगारी फ़रोग़-ए-जावेदाँ पैदा करे
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
गिरते हैं इक फ़र्श-ए-मख़मल बनाते हैं जिस पर
मिरी आरज़ूओं की परियाँ अजब आन से यूँ रवाँ हैं
मीराजी
नज़्म
न देखे हैं बुरे इस ने न परखे हैं भले इस ने
शिकंजों में जकड़ कर घूँट डाले हैं गले इस ने
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
थर-थर का ज़ोर उखाड़ा हो बजती हो सब की बत्तीसी
हो शोर फफू हू-हू का और धूम हो सी-सी सी-सी की
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
हर ज़बाँ पर अब सला-ए-जंग है ये भी तो देख
फ़र्श-ए-गीती से सकूँ अब माइल-ए-परवाज़ है
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
किसी की कुछ नहीं सुनता न हँसता है न रोता है
वो बस ख़ामोश फ़र्श-ए-ख़ाक पर यूँही तड़पता है