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नज़्म
कहीं भी कोई रख़्ना, कोई नक़्स, मैं नहीं समझ सका
बदन भी तंदरुस्त है मगर ये नौनिहाल चार साल का
सत्यपाल आनंद
नज़्म
गर्मी-ए-ख़ुर्शीद से सोना पिघलता है कहीं
जौहरी भी नुक़्स के साँचे में ढलता है कहीं